मेरे पति मेरे ससुराल से एक गुलाब की टहनी लाए,उसे बडे़ जतन से एक नये गमले में लगाए,सुबह उठते ही उसे पानी देते ,धुप ज्यादा होने पर उसे छाँव में रख देते ,शाम के समय पुनः पानी से नहलाते,उसके बगल में कुर्सी लगा कर बैठ जाते और अपलक निहारते रहते।मुझे कहते -चाय यहीं लेकर आओ,तुम भी यहीं बैठो।हम दोनों उसे निहरते हुए चाय की चुसकी लेते।गुलाब भी मन ही मन मुश्कुराता होगा अपने प्रति उनके प्रेम को देख कर।कुछ दिन बित जाने पर भी गुलाब की टहनी से एक भी कोपल नहीं निकले , ईसलिए वे चिंतित थे कि यह कहीं सुख न जाए ।मैं उनके उधेरबुन को समझ गयीं, मै और बोली आप चिंता क्यों करते हैं यह गुलाब अवश्य हमारे बगीचा की सोभा को बढा़एगा।वे मेरी बातों को सुन हँसने लगे।मैं बोली हमारे कूल देवता के प्रांगन से आशिश के रुप में प्राप्त हुआ है इसलिए अवश्य खिलकर खिलखिलाएगा और हम भी
प्रफुलित होंगे या यूँ कहिए हमें भी मुदित करेगा।
समय गुजरता गया कुछ दिन उस दरभंगिया गुलाब पर से ध्यान हट गया।और अन्य फूलों की भी खूब चाव से,खूब लगन से देख भाल करते रहे।सनेह -सनेह गरमी के दुखद दिन बीत गये अषाढ़ की सुहानी हवा के झोंकों के संग गगन में बादल छा गये शाम की महकती बेला में जब सुरज की किरणें मचल रहीं थी रात्रि के आगोश में समाने को और इनद्रधनु बन्दनवार बना हुआ था स्वागत में , बादल जो घिर आया था व्योम में तभी चुपके से फुहार थिरकने लगे और सराबोर हुआ पृथ्वि का पोर-पोर, कण-कण,पेड़ों की टहनियाँ झूम उठी, कौवे कलरव करने लगे कोयल कूक उठी जैसे पिहू के विरहाग्नि में संतप्त पडी़ थी ,अब मिलन की आस जगी हो।झड़-झड़ चमकिले
केले की पत्तियों पर खनज्जन चिड़ियों की टोली शोर मचाती चहक रही है और चुपके से रात घिर आईऔर हम
सब दुबक गये अपने -अपने घरों में अल्हाद लिए।
सुबह की सुहानी भींगी-भींगी हवा के झोंकों संग और कोयल की कूक संंग अंगराई लिए सुबह हुई और हम भागे बाहर की ओर, मिट्टी की खुशबु को पाने दौड़े आंगन में और बाहें फैलाए मीठी हवा को बाहों में भरने ,तभी सहसा निगाहें ठहर गयीं दरभंगिया गुलाब पर,
जैसे लगा हवा ठहर गयीं,मिट्टी की खुशबू सिमट कर गुलाब
की टहनी पर निकले हरे-हरे कोपल को छूने को मचल गयीं हो।मैं जोर से पुकार उठी और बोली आप की मेहनत रंग लायी,दरभंगिया गुलाब में पल्लव थिरक उठे वे मुश्कुराते हुए उसे देखते रहे अपलक कुछ देर ।
रोज उसकी सेवा होती अगहन के माह में कयी कलियाँ इठलाने लगीं,सूरज की किरणों संग हंसने लगी,पहले गहरे गुलाबी रंग को लिए झूमती ईठलाते हुए मुश्कुराई,ज्यों-ज्यों बढ़ी हल्की गुलाब बन गयी और फिर सूर्ख गुलाबी हो गयीं, नित-नित बदलता रुप हमें अचम्भित करता ।

धीरे-धीरे अन्गिनत टहनियाँ निकली जिसे अलग-अलग गमलों में उन्होंने लगा दिया।हर तरफ दरभंगिया गुलाब का राज है बगीचे में और हमलोग उस पर मोहित हैं।पहले से लगे हुए बेचारे गुलाब जलन महसूस नहीं करते मनुष्य की तरह वरण वे भी अपना जलवा दरभंगिया के साथ मिलकर विखेड़ने में पीछे नहीं रहते।मैं ढ़ेरों सारा फोटो अपने मोवाईल से खिंचकर अपने दोस्तों को भेजती रहती हूँ।कुछ लोग फूल भेजने पर प्रतिक्रिया भी भेजे, सभी व्यक्ति के सोच एक जैसे नहीं हो सक्ते,यही सोचकर सन्तोष कर लेने में भलाई है।फूल भेज कर शुभ प्रभात कह कर स्नेह वो प्रेम का उदगार प्रगट करना यदि सही नहीं है सोच वाले व्यक्ति मेरे मायने में बहुत गरीब वो हृदय का नीरस व्यक्ति है।
गुलाब सुवह की ताजगी भर देता है,शामकी तन्हाइयों में हमराज बन कर कानों में जैसे फुसफुसाकर प्रफुल्लित कर देता है।काटों संग रह कर भी
अपने गुणों को नहीं त्यागती।लोकोकती है कि खड़भूजे को देख खड़जा रंग बदलता है पर ये अपने ही रंगो की होली खेलती रहती है,प्रकृति की अनोखी रचनाओं में से एक अद्भूत रचना है।

देखते हीं देखते पंखुड़ियाँ झड़ने लगती है,मन उदास हो जाता है ,सोचती हूँ;, जीवन कितना क्षणभंगूर है!
देखते-देखते ये भी चुपके से समाप्त हो जाता है और आदमी अन्त समय हाथ मलते रह जाता है,एक दूसरे के जीवन पर उँगी उठाते हुए अपना जीवन जीना भूल जाता है। ठीक ही किसी ने कहा है आदमी बिना मुहूर्त के जन्म लेता है और बिना मुहूर्त के मर जाता है, लेकिन बिड़म्बना देखो ज़िन्दगीभर मुहूर्त की तलाश में जीवन को उलझाए रहता है।समय पर काम न कर सकने वो अधुरे कामों को छोड़ अफसोस करते अन्जान सफर पर चल देता है।।

- आशा राय

दरभंगिया गुलाब

वो छोटी सी कविता

चंदन जैसी शाम जल रही,
कंचन जैसी काया,
कौन खड़ा इतिहास मंच पर,
आग लगाने आया,
आग लगे तो जले दुपहरी,
प्यास लगे तो पानी,
अपनी ज्वाला में हम जलते ,
कैसी अकथ कहानी।।
यह छोटी सी कविता मुझसे खो गई
या यूं कहिए बच्चों ने और कविता की रजिस्टर के साथ उसे भी कवाड़ी वाले को बेच दी पर उस कविता ने मुझे बहुत प्रेरित किया है।वो छोटी सी कविता लखनऊ के एक अखबार में प्रकाशित हुई थी।वह छोटी सी कविता शायद याद आ रहा है कि उसे मेरे मित्र ने संशोधित किया था। संशोधित मॉडल को मैंने हज़ारों बार पढ़ा है कयी मंच पर बहुत गर्व से पाठ किया पर कविता बहुत छोटी होते हुए भी बहुत रहस्यमय है जिसकी विस्तृत विवरण तत्कालीन परिवेश में मैं नहीं कर सकती।जीवन के सफर के रास्ते बदलते चले गए और जीवन का ऐसा मोड़ आया कि मौसम ही बदल गया।पर बदलते मौसम की सौगात मुझे जीवन के झंझावातों से लड़ने का अवलम्ब दिया और मैं सफर के सभी थपेडों को झेलती हुई हर मौसम को देखा है और उसे इमानदारी से कर्तव्य को कंधे से कंधा मिलाकर निभाया है। पर उस छोटी सी कविता को मैं आज तक नहीं भूली और खो जाने के बाद भी जेहन के भूले-बिसरे कबाड़ से ढूंढ कर लिखा है और वो यही है।
शायद पाठक मित्रों को अच्छी लगे उम्मीद रखती हूं।
- आशा राय